शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

हिज्र कि सब का सहारा भी नहीं...

हिज्र की सब का सहारा भी नहीं
अब फलक पर कोई तारा भी नहीं

बस तेरी याद ही काफी है मुझे
और कुछ दिल को गवारा भी नहीं

जिसको देखूँ तो मैं देखा ही करूँ
ऐसा अब कोई नजारा भी नहीं

डूबने वाला अजब था कि मुझे
डूबते वक्त पुकारा भी नहीं

कश्ती ए इश्क वहाँ है मेरी
दूर तक कोई किनारा भी नहीं

दो घड़ी उसने मेरे पास आकर
बारे गम सर से उतारा भी नहीं

कुछ तो है बात कि उसने साबिर
आज जुल्फों को सँवारा भी नहीं।

साबिर इंदौरी

दिल कि दुनिया बसा गया है कौन...

दिल की दुनिया बसा गया है कौन,
रंज-ओ-ग़म था मिटा गया है कौन,

आके चुपके से ख़्वाब में मेरे,
नींदें मीठी बना गया है कौन,

दूर रह कर भी शाख़ से कलियो,
तुमको जीना बता गया है कौन,

क्यों ये सरशारियाँ हवाओं में,
मस्ती अपनी लुटा गया है कौन...

अहसान 'मेरठी'

बुधवार, 5 जनवरी 2011

वो मुक़द्दर न रहा और वो ज़माना न रहा...

वो मुक़द्दर न रहा और वो ज़माना न रहा,
तुम जो बेगाने हुए, कोई यगाना न रहा,
ओ ज़मीं तू ही लब-ए-ग़ौर से इतना कह दे,
आ मेरी गोद में गर, कोई ठिकाना न रहा...

जिसकी उम्मीद में जीते थे, ख़फ़ा है वो भी,
ऐ अज़ल! आ कि कोई अब तो बहाना न रहा,
रहम कर, रहम कर, कि ये इश्क़ सितम है मुझ पर,
तीर फिर किस पै चलेंगे जो निशाना न रहा...

आगा हश्र कश्मीरी

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

सितम भी तुम्हारे करम भी तुम्हारे...

निगाह-ए-मेहर हमसे आज बे-तक़सीर फिरती हैं,
किसी की कुछ नहीं चलती जब तक़दीर फिरती है...
-------------------------------------------
सितम भी तुम्हारे करम भी तुम्हारे,
पुकारें सितमक़श तो किसको पुकारें,

ज़बाँ पर ख़ामोशी नज़र से इशारे,
जो यूँ चोट खाए वो किसको पुकारे,

ज़माने की करवट बदल देगा साहिल,
चला-चल चला-चल किनारे-किनारे,

नज़र उसने बदली जो दिल को लुभा कर,
पुकार उठी क़िस्मत बुरी हार हारे...

आरज़ू लखनवी

कहीं उम्मीद सी है दिल के निहाँखाने में...

कहीं उम्मीद सी है दिल के निहाँख़ाने में,
अभी कुछ वक़्त लगेगा इसे समझाने में,

मौसम-ए-गुल हो कि पतझड़ हो बला से अपनी,
हम कि शामिल हैं न खिलने में न मुर्झाने में,

है यूँ ही घुमते रहने का मज़ा ही कुछ और,
ऐसी लज़्ज़त न पहुँचने में न रह जाने में,

नये दीवानों को देखें तो ख़ुशी होती है,
हम भी ऐसे ही थे जब आये थे वीराने में,

मौसमों का कोई मेहरम हो तो उस से पूछो,
कितने पतझड़ अभी बाक़ी हैं बहार आने में...

अहमद मुस्ताक

शाम को सुबह-ए-चमन याद आई...

शाम को सुबह-ए-चमन याद आई,
किस की ख़ुश्बू-ए-बदन याद आई,

जब ख़यालों में कोई मोड़ आया,
तेरे गेसू की शिकन याद आई,

चाँद जब दूर उफ़क़ पर डूबा,
तेरे लहजे की थकन याद आई,

दिन शुआओं से उलझते गुज़रा,
रात आई तो किरन याद आई...

अहमद नदीम कासमी

रविवार, 2 जनवरी 2011

सभी अंदाज़-ए-हुस्न प्यारे हैं...

सभी अंदाज़-ए-हुस्न प्यारे हैं,
हम मगर सादगी के मारे हैं,

ऐ सहारों की ज़िंदगी वालो,
कितने इंसान बेसहारे हैं,

वो हमीं हैं के जिनके हाथों ने,
गेसु-ए-ज़िंदगी सँवारे हैं,

उसकी रातों का इंतेक़ाम न पूछ,
जिसने हँस-हँस के दिन गुज़ारे हैं...

जिगर 'मुरादाबादी'

रोशनी लेने चले थे और अंधेरे छा गये...

रोशनी लेने चले थे और अंधेरे छा गये,
मुस्कुराने भी न पाये थे के आँसू आ गये,

ज़िंदगी अब मौत से बढ़कर भयानक हो गई,
जीने वाले ज़िंदगी के नाम से घबरा गये,

आह वो मंज़िल जो मेरी ग़फ़लतों से ग़ुम हुई,
हाय वो रहबर जो मुझको राह से भटका गये,

उनको क्या चाहा के एक आलम मुख़ालिफ़ हो गया,
इक ख़ुशी क्या माँग ली के ग़म के बादल छा गये...

शीमाम जयपुरी

ठीक नहीं...

आँखें, पलकें, गाल भिगोना ठीक नहीं,
छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं,

गुमसुम तन्हा क्यों बैठे हो सब पूछें,
इतना भी संज़ीदा होना ठीक नहीं,

कुछ और सोच जरीया उस को पाने का,
जंतर-मंतर जादू-टोना ठीक नहीं,

अब तो उस को भूल ही जाना बेहतर है,
सारी उम्र का रोना-धोना ठीक नहीं,

मुस्तक़बिल के ख़्वाबों की भी फिक्र करो,
यादों के ही हार पिरोना ठीक नहीं,

दिल का मोल तो बस दिल ही हो सकता है,
हीरे-मोती चांदी-सोना ठीक नहीं,

कब तक दिल पर बोझ उठाओगे परवाज,
माज़ी के ज़ख़्मों को ढोना ठीक नहीं...


जतिन्दर परवाज़