मंगलवार, 29 सितंबर 2009

सुन्दरतम कविता

आयो घोष बड़ो व्यापारी,
पोछ ले गयो नींद हमारी
कभी जमूरा कभी मदारी
इसको कहते हैं व्यापारी
रंग गई मन की अंगिया-चूनर
देह ने जब मारी पिचकारी
अपना उल्लू सीधा हो बस
कैसा रिश्ता कैसी यारी
आप नशे पर न्यौछावर हो
मैं अब जाऊँ किस पर वारी
बिकते बिकते बिकते बिकते
रुह हो गई है सरकारी
अब जब टूट गई ज़ंजीरें
क्या तुम जीते क्या मैं हारी
भूख हिकारत और गरीबी
किसको कहते हैं खुद्दारी?
दुनिया की सुंदरतम् कविता
सोंधी रोटी, दाल बघारी

देवेन्द्र आर्य....

7 टिप्‍पणियां:

ओम आर्य ने कहा…

बेहद खुब्सूरत है आपकी रचनाये .........ऐसे ही लिखते रहे .........कविता अपने आपमे व्यापक अर्थ लिये हुये है!

श्याम सुन्दर सारस्वत ने कहा…

धन्यवाद ओम जी....
आप के इस कमेन्ट पर जरूर गौर करूँगा....

आभार..

Chandan Kumar Jha ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता है यह । लिखते रहे । आभार


गुलमोहर का फूल

Udan Tashtari ने कहा…

आपका हिन्दी चिट्ठाजगत में हार्दिक स्वागत है. आपके नियमित लेखन के लिए अनेक शुभकामनाऐं.

एक निवेदन:

कृप्या वर्ड वेरीफीकेशन हटा लें ताकि टिप्पणी देने में सहूलियत हो. मात्र एक निवेदन है.

वर्ड वेरीफिकेशन हटाने के लिए:

डैशबोर्ड>सेटिंग्स>कमेन्टस>Show word verification for comments?> इसमें ’नो’ का विकल्प चुन लें..बस हो गया..कितना सरल है न हटाना.

Sanjay Grover ने कहा…

हुज़ूर आपका भी एहतिराम करता चलूं.........
इधर से गुज़रा था, सोचा, सलाम करता चलूं....

ਸ਼ਿਆਮ ਸੁੰਦਰ ਅਗਰਵਾਲ ने कहा…

आपका साहित्यक प्रयास सरहनीय है। निष्पक्ष रहकर किया गया काम बहुत प्रभावशाली होता है। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

lajavab.narayan narayan