भले ही मुल्क के हालात में तब्दीलियाँ कम हों
किसी सूरत गरीबों की मगर अब सिसकियाँ कम हों।
तरक्की ठीक है इसका ये मतलब तो नहीं लेकिन
धुआँ हो, चिमनियाँ हों, फूल कम हों, तितलियाँ कम हों।
फिसलते ही फिसलते आ गए नाज़ुक मुहाने तक
जरूरी है कि अब आगे से हमसे गल्तियाँ कम हों।
यही जो बेटियाँ हैं ये ही आखिर कल की माँए हैं
मिलें मुश्किल से कल माँए न इतनी बेटियाँ कम हों।
दिलों को भी तो अपना काम करने का मिले मौका
दिमागों ने जो पैदा की है शायद दूरियाँ कम हों।
अगर सचमुच तू दाता है कभी ऐसा भी कर ईश्वर
तेरी खैरात ज्यादा हो हमारी झोलियाँ कम हों।
कमलेश भट्ट 'कमल'
शनिवार, 3 अक्टूबर 2009
शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2009
दाता एक राम
साधू, संत, फकीर, औलिया, दानवीर, भिखमंगे
दो रोटी के लिए रात-दिन नाचें होकर नंगे
घाट-घाट घूमे, निहारी सारी दुनिया
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया !
राजा, रंक, सेठ, संन्यासी, बूढ़े और नवासे
सब कुर्सी के लिए फेंकते उल्टे-सीधे पासे
दो रोटी के लिए रात-दिन नाचें होकर नंगे
घाट-घाट घूमे, निहारी सारी दुनिया
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया !
राजा, रंक, सेठ, संन्यासी, बूढ़े और नवासे
सब कुर्सी के लिए फेंकते उल्टे-सीधे पासे
द्रौपदी अकेली, जुआरी सारी दुनिया
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया !
कहीं न बुझती प्यास प्यार की, प्राण कंठ में अटके
घर की गोरी क्लब में नाचे, पिया सड़क पर भटके
शादीशुदा होके, कुँआरी सारी दुनिया
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया !
पंचतत्व की बीन सुरीली, मनवा एक सँपेरा
जब टेरा, पापी मनवा ने, राग स्वार्थ का टेरा
संबंधी हैं साँप, पिटारी सारी दुनिया
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया !
अल्हड बीकानेरी
गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009
मासूम भोले-भाले
क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि भोले भाले ।
निकले थी दाई लेकर फिरते कभी ददा ले ।।
चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले ।
हँसली गले में डाले मिन्नत कोई बढ़ा ले ।।
मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले ।
क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।1।।
दिल में किसी के हरगिज़ ने (न) शर्म ने हया है ।
आगा भी खुल रहा है,पीछा भी खुल रहा है ।।
पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है ।
याँ यूँ भी वाह वा है और वूँ भी वाह वा है ।।
कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।2।।
मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना ।
ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना ।।
उनकी बला से घर में हो क़ैद या कि घिरना ।
जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना।।
माँ ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।3।।
कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं ।
गुड़, बेर, मूली, गाजर, ले मुंह में घोटते हैं ।।
बाबा की मूंछ माँ की चोटी खसोटते हैं ।
गर्दों में अट रहे हैं, ख़ाकों में लोटते हैं ।।
कुछ मिल गया सो पी लें, कुछ बन गया सो खालें ।
क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।4।।
जो उनको दो सो खालें, फीका हो या सलोना ।
हैं बादशाह से बेहतर जब मिल गया खिलौना ।।
जिस जा पे नींद आई फिर वां ही उनको सोना ।
परवा न कुछ पलंग की ने चाहिए बिछौना ।।
भोंपू कोई बजा ले, फिरकी कोई फिरा ले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।5।।
ये बालेपन का यारो, आलम अजब बना है ।
यह उम्र वो है इसमें जो है सो बादशाह है।।
और सच अगर ये पूछो तो बादशाह भी क्या है।
अब तो ‘‘नज़ीर’’ मेरी सबको यही दुआ है ।
जीते रहें सभी के आसो-मुराद वाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।6।।
नज़ीर अकबराबादी
निकले थी दाई लेकर फिरते कभी ददा ले ।।
चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले ।
हँसली गले में डाले मिन्नत कोई बढ़ा ले ।।
मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले ।
क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।1।।
दिल में किसी के हरगिज़ ने (न) शर्म ने हया है ।
आगा भी खुल रहा है,पीछा भी खुल रहा है ।।
पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है ।
याँ यूँ भी वाह वा है और वूँ भी वाह वा है ।।
कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।2।।
मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना ।
ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना ।।
उनकी बला से घर में हो क़ैद या कि घिरना ।
जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना।।
माँ ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।3।।
कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं ।
गुड़, बेर, मूली, गाजर, ले मुंह में घोटते हैं ।।
बाबा की मूंछ माँ की चोटी खसोटते हैं ।
गर्दों में अट रहे हैं, ख़ाकों में लोटते हैं ।।
कुछ मिल गया सो पी लें, कुछ बन गया सो खालें ।
क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।4।।
जो उनको दो सो खालें, फीका हो या सलोना ।
हैं बादशाह से बेहतर जब मिल गया खिलौना ।।
जिस जा पे नींद आई फिर वां ही उनको सोना ।
परवा न कुछ पलंग की ने चाहिए बिछौना ।।
भोंपू कोई बजा ले, फिरकी कोई फिरा ले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।5।।
ये बालेपन का यारो, आलम अजब बना है ।
यह उम्र वो है इसमें जो है सो बादशाह है।।
और सच अगर ये पूछो तो बादशाह भी क्या है।
अब तो ‘‘नज़ीर’’ मेरी सबको यही दुआ है ।
जीते रहें सभी के आसो-मुराद वाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।6।।
नज़ीर अकबराबादी
बुधवार, 30 सितंबर 2009
माँ
माँ कबीर की साखी जैसी
तुलसी की चौपाई-सी
माँ मीरा की पदावली-सी
माँ है ललित रूबाई-सी।
माँ वेदों की मूल चेतना
माँ गीता की वाणी-सी
माँ त्रिपिटिक के सिद्ध सुक्त-सी
लोकोक्तर कल्याणी-सी।
माँ द्वारे की तुलसी जैसी
माँ बरगद की छाया-सी
माँ कविता की सहज वेदना
महाकाव्य की काया-सी।
माँ अषाढ़ की पहली वर्षा
सावन की पुरवाई-सी
माँ बसन्त की सुरभि सरीखी
बगिया की अमराई-सी।
माँ यमुना की स्याम लहर-सी
रेवा की गहराई-सी
माँ गंगा की निर्मल धारा
गोमुख की ऊँचाई-सी।
माँ ममता का मानसरोवर
हिमगिरि सा विश्वास है
माँ श्रृद्धा की आदि शक्ति-सी
कावा है कैलाश है।
माँ धरती की हरी दूब-सी
माँ केशर की क्यारी है
पूरी सृष्टि निछावर जिस पर
माँ की छवि ही न्यारी है।
माँ धरती के धैर्य सरीखी
माँ ममता की खान है
माँ की उपमा केवल है
माँ सचमुच भगवान है।
जगदीश व्योम
तुलसी की चौपाई-सी
माँ मीरा की पदावली-सी
माँ है ललित रूबाई-सी।
माँ वेदों की मूल चेतना
माँ गीता की वाणी-सी
माँ त्रिपिटिक के सिद्ध सुक्त-सी
लोकोक्तर कल्याणी-सी।
माँ द्वारे की तुलसी जैसी
माँ बरगद की छाया-सी
माँ कविता की सहज वेदना
महाकाव्य की काया-सी।
माँ अषाढ़ की पहली वर्षा
सावन की पुरवाई-सी
माँ बसन्त की सुरभि सरीखी
बगिया की अमराई-सी।
माँ यमुना की स्याम लहर-सी
रेवा की गहराई-सी
माँ गंगा की निर्मल धारा
गोमुख की ऊँचाई-सी।
माँ ममता का मानसरोवर
हिमगिरि सा विश्वास है
माँ श्रृद्धा की आदि शक्ति-सी
कावा है कैलाश है।
माँ धरती की हरी दूब-सी
माँ केशर की क्यारी है
पूरी सृष्टि निछावर जिस पर
माँ की छवि ही न्यारी है।
माँ धरती के धैर्य सरीखी
माँ ममता की खान है
माँ की उपमा केवल है
माँ सचमुच भगवान है।
जगदीश व्योम
मंगलवार, 29 सितंबर 2009
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो
इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं
जिधर देखता हूं, गधे ही गधे हैं
गधे हँस रहे, आदमी रो रहा है
हिन्दोस्तां में ये क्या हो रहा है
जवानी का आलम गधों के लिये है
ये रसिया, ये बालम गधों के लिये है
ये दिल्ली, ये पालम गधों के लिये है
ये संसार सालम गधों के लिये है
पिलाए जा साकी, पिलाए जा डट के
तू विहस्की के मटके पै मटके पै मटके
मैं दुनियां को अब भूलना चाहता हूं
गधों की तरह झूमना चाहता हूं
घोडों को मिलती नहीं घास देखो
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो
यहाँ आदमी की कहां कब बनी है
ये दुनियां गधों के लिये ही बनी है
जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है
जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है
जो माइक पे चीखे वो असली गधा है
मैं क्या बक गया हूं, ये क्या कह गया हूं
नशे की पिनक में कहां बह गया हूं
मुझे माफ करना मैं भटका हुआ था
वो ठर्रा था, भीतर जो अटका हुआ था
ओम प्रकाश 'आदित्य'
जिधर देखता हूं, गधे ही गधे हैं
गधे हँस रहे, आदमी रो रहा है
हिन्दोस्तां में ये क्या हो रहा है
जवानी का आलम गधों के लिये है
ये रसिया, ये बालम गधों के लिये है
ये दिल्ली, ये पालम गधों के लिये है
ये संसार सालम गधों के लिये है
पिलाए जा साकी, पिलाए जा डट के
तू विहस्की के मटके पै मटके पै मटके
मैं दुनियां को अब भूलना चाहता हूं
गधों की तरह झूमना चाहता हूं
घोडों को मिलती नहीं घास देखो
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो
यहाँ आदमी की कहां कब बनी है
ये दुनियां गधों के लिये ही बनी है
जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है
जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है
जो माइक पे चीखे वो असली गधा है
मैं क्या बक गया हूं, ये क्या कह गया हूं
नशे की पिनक में कहां बह गया हूं
मुझे माफ करना मैं भटका हुआ था
वो ठर्रा था, भीतर जो अटका हुआ था
ओम प्रकाश 'आदित्य'
सुन्दरतम कविता
आयो घोष बड़ो व्यापारी,
पोछ ले गयो नींद हमारी
कभी जमूरा कभी मदारी
इसको कहते हैं व्यापारी
रंग गई मन की अंगिया-चूनर
देह ने जब मारी पिचकारी
अपना उल्लू सीधा हो बस
कैसा रिश्ता कैसी यारी
आप नशे पर न्यौछावर हो
मैं अब जाऊँ किस पर वारी
बिकते बिकते बिकते बिकते
रुह हो गई है सरकारी
अब जब टूट गई ज़ंजीरें
क्या तुम जीते क्या मैं हारी
भूख हिकारत और गरीबी
किसको कहते हैं खुद्दारी?
दुनिया की सुंदरतम् कविता
सोंधी रोटी, दाल बघारी
देवेन्द्र आर्य....
पोछ ले गयो नींद हमारी
कभी जमूरा कभी मदारी
इसको कहते हैं व्यापारी
रंग गई मन की अंगिया-चूनर
देह ने जब मारी पिचकारी
अपना उल्लू सीधा हो बस
कैसा रिश्ता कैसी यारी
आप नशे पर न्यौछावर हो
मैं अब जाऊँ किस पर वारी
बिकते बिकते बिकते बिकते
रुह हो गई है सरकारी
अब जब टूट गई ज़ंजीरें
क्या तुम जीते क्या मैं हारी
भूख हिकारत और गरीबी
किसको कहते हैं खुद्दारी?
दुनिया की सुंदरतम् कविता
सोंधी रोटी, दाल बघारी
देवेन्द्र आर्य....
हार जाता है
शरीफ इन्सान आखिर क्यों इलेक्शन हार जाता है,
कहानी में तो ये लिखा है रावण हार जाता है।
जुडी हैं इससे तहजीबें ये सब तस्लीम करते हैं,
नुमाइश में मगर मिटटी का बर्तन हार जाता है।
अभी मौजूद है इस गाँव की मिटटी में खुद्दारी,
अभी बेवा की गैरत से महाजन हार जाता है।
अगर एक कीमती बाज़ार की कीमत है ये दुनिया,
तो फिर क्यों कांच की चूड़ी से कंगन हार जाता है।
मुनव्वर राना...
कहानी में तो ये लिखा है रावण हार जाता है।
जुडी हैं इससे तहजीबें ये सब तस्लीम करते हैं,
नुमाइश में मगर मिटटी का बर्तन हार जाता है।
अभी मौजूद है इस गाँव की मिटटी में खुद्दारी,
अभी बेवा की गैरत से महाजन हार जाता है।
अगर एक कीमती बाज़ार की कीमत है ये दुनिया,
तो फिर क्यों कांच की चूड़ी से कंगन हार जाता है।
मुनव्वर राना...
तेरा भी है मेरा भी
गम का खजाना तेरा भी है मेरा भी,
ये नज़राना तेरा भी है मेरा भी,
अपने गम को गीत बनाके गा लेना,
राग पुराना तेरा भी है मेरा भी,
तू मुझको और मैं तुझको समझाऊं क्या,
दिल दीवाना तेरा भी है मेरा भी,
शहरों शहरों गलियों जिस का चर्चा है,
वो अफ़साना तेरा भी है मेरा भी,
मैखाने की बात ना कर वाइज़ मुझ से,
आना जाना तेरा भी है मेरा भी....
शाहिद कबीर...
ये नज़राना तेरा भी है मेरा भी,
अपने गम को गीत बनाके गा लेना,
राग पुराना तेरा भी है मेरा भी,
तू मुझको और मैं तुझको समझाऊं क्या,
दिल दीवाना तेरा भी है मेरा भी,
शहरों शहरों गलियों जिस का चर्चा है,
वो अफ़साना तेरा भी है मेरा भी,
मैखाने की बात ना कर वाइज़ मुझ से,
आना जाना तेरा भी है मेरा भी....
शाहिद कबीर...
एक ग़ज़ल...
बात चली तेरी आँखों से, जा पहुंची पैमाने तक,
खींच रही है तेरी उल्फत, आज मुझे मैखाने तक,
इश्क कि बातें, गम कि बातें, दुनिया वाले करते हैं,
किसने शम्मा का दुःख देखा, कौन गया परवाने तक,
इश्क नहीं है तुमको मुझ से सिर्फ बहाने करती हो,
यूँ ही बहाने कायम रखना, तुम मेरे मर जाने तक,
इतना ही कहना है तुमसे, मुमकिन हो तो आ जाना,
आ ही गए तो रुकना होगा, आँखों के पथराने तक..
अज्ञात...
खींच रही है तेरी उल्फत, आज मुझे मैखाने तक,
इश्क कि बातें, गम कि बातें, दुनिया वाले करते हैं,
किसने शम्मा का दुःख देखा, कौन गया परवाने तक,
इश्क नहीं है तुमको मुझ से सिर्फ बहाने करती हो,
यूँ ही बहाने कायम रखना, तुम मेरे मर जाने तक,
इतना ही कहना है तुमसे, मुमकिन हो तो आ जाना,
आ ही गए तो रुकना होगा, आँखों के पथराने तक..
अज्ञात...
रविवार, 27 सितंबर 2009
दिन आ रहे हैं
नसीब आजमाने के दिन आ रहे हैं,
करीब उनके आने के दिन आ रहे हैं,
जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है,
सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं,
अभी दिलो-जाँ सारे-राह रख दो,
के लुटने-लुटाने के दिन आ रहे हैं,
टपकने लगी है निगाहों से मस्ती,
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं,
सब्बा फ़िर हमसे पूछती फ़िर रही है,
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं,
चलो "फैज़" फ़िर से कहीं दिल लगायें,
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं......
(फैज़ अहमद फैज़)
करीब उनके आने के दिन आ रहे हैं,
जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है,
सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं,
अभी दिलो-जाँ सारे-राह रख दो,
के लुटने-लुटाने के दिन आ रहे हैं,
टपकने लगी है निगाहों से मस्ती,
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं,
सब्बा फ़िर हमसे पूछती फ़िर रही है,
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं,
चलो "फैज़" फ़िर से कहीं दिल लगायें,
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं......
(फैज़ अहमद फैज़)
बोलता है..
मेरी दीवार, मेरा दर बोलता है,
वो आ जाए तो घर बोलता है,
इलाही खैर हो कातिल की मेरी,
सुना है ये खंजर बोलता है,
ये एजाज है उसकी गुफ्त-गु का,
मुखातिब हो तो पत्थर बोलता है,
शराफत का पता चलता है उसकी,
वो जब गुस्से में भर कर बोलता है,
छुपाऊं इस गरीबी को कहाँ तक,
जरा सी बारिश हो तो छप्पर बोलता है....
-नवाज देवबंदी साहब
वो आ जाए तो घर बोलता है,
इलाही खैर हो कातिल की मेरी,
सुना है ये खंजर बोलता है,
ये एजाज है उसकी गुफ्त-गु का,
मुखातिब हो तो पत्थर बोलता है,
शराफत का पता चलता है उसकी,
वो जब गुस्से में भर कर बोलता है,
छुपाऊं इस गरीबी को कहाँ तक,
जरा सी बारिश हो तो छप्पर बोलता है....
-नवाज देवबंदी साहब
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