शनिवार, 1 जनवरी 2011

जब रात की तन्हाई दिल बन के धड़कती है...

जब रात की तन्हाई दिल बन के धड़कती है,
यादों के दरीचे में चिलमन सी सरकती है,

यूँ प्यार नहीं छुपता पलकों के झुकाने से,
आँखों के लिफ़ाफ़ों में तहरीर चमकती है,

ख़ुश-रंग परिंदों के लौट आने के दिन आये,
बिछड़े हुये मिलते हैं जब बर्क पिघलती है,

शोहरत की बुलन्दी भी पल भर का तमाशा है,
जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है...

बशीर बद्र

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते...

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए तुम से वो अफ़्साने कहाँ जाते

तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाख़ाने की
तुम आँखों से पिला देते तो मैख़ाने कहाँ जाते?

चलो अच्छा हुआ, काम आ गई दीवानगी अपनी
वगरना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते?


Chitra Singh only sang the foregoing three couplets..
The additional two below are included for completeness...


निकल कर दैर-ओ-काबा से, अगर मिलता न मैख़ाना
तो ठुकराए हुए इनसाँ, ख़ुदा जाने कहाँ जाते!

'क़तील', अपना मुक़द्दर ग़म से बेगाना अगर होता
तो फिर अपने-पराए हम से पहचाने कहाँ जाते...


क़तील सिफाई

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

क़िस्सा-ए-महर-ओ-वफ़ा कब का पुराना हो गया...

क़िस्सा-ए-महर-ओ-वफ़ा कब का पुराना हो गया,
उनसे बिछड़े भी हमें अब तो ज़माना हो गया,

रात के पिछले पहर देखा था जिनको ख़ाब में,
ज़िंदगी भर अब उन्हें मुश्किल भुलाना हो गया,

प्यार के दो बोल ही तो थे मेरी रुस्वाई के,
इक ज़रा सी बात का इतना फ़साना हो गया,

उनकी ज़ुल्फ़ों की घनेरी छाँव क्या आई के फिर,
देखते ही देखते मौसम सुहाना हो गया,

जिस गली में हिचकिचाते थे कभी जाते हुये,
उस गली में अब 'हसन' का आना जाना हो गया...

हसन रिज़वी

तेरी ज़ुल्फ़ों से जुदाई तो नहीं माँगी थी...

तेरी ज़ुल्फ़ों से, जुदाई तो नहीं माँगी थी
क़ैद माँगी थी, रिहाई तो नहीं माँगी थी

मैने क्या ज़ुर्म किया, आप खफ़ा हो बैठे
प्यार माँगा था, खुदाई तो नहीं माँगी थी

मेरा हक़ था तेरी, आंखों की छलकती मय पर
चीज़ अपनी थी, पराई तो नहीं माँगी थी

अपने बीमार पे, इतना भी सितम ठीक नहीं
तेरी उल्फ़त में, बुराई तो नहीं माँगी थी

चाहने वालों को कभी, तूने सितम भी ना दिया
तेरी महफ़िल से, रुसवाई तो नहीं माँगी थी...

हसरत जयपुरी

हन्गामा है क्यूँ बरपा...

हन्गामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है

ना-तजुर्बाकारी से वाइज़ की ये बातें हैं
इस रन्ग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है

उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना
मक़सूद है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है


हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है

सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहे काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है


अकबर इलाहाबादी

किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है...

अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है
ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है

लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है

मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है

हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है

जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है

सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है...


राहत इन्दोरी
दृष्टि नहीं तो दर्पण का सुख व्यर्थ हो गया।
कृष्ण नहीं तो मधुबन का सुख व्यर्थ हो गया।

कौन पी गया कुंभज बन कर खारा सागर?
अश्रु नहीं तो बिरहन का सुख व्यर्थ हो गया।

ऑंगन में हो तरह-तरह के खेल-खिलौने,
हास्य नहीं तो बचपन का सुख व्यर्थ हो गया।

भले रात में कण-कण करके मोती बरसें,
भोर नहीं तो शबनम का सुख व्यर्थ हो गया।

गीत बना लो, गुनगुन कर लो, सुर में गा लो,
ताल नहीं तो सरगम का सुख व्यर्थ हो गया।


किशोर काबरा
देखना जब इधर से उधर जाओगे,
ये तो तय है कि तुम भी मुकर जाओगे,

तुमसे नज़रें मिलीं थीं यूँ ही बेसबब,
क्या ख़बर थी कि दिल में उतर जाओगे,

सब सबूतों को तुमने मिटा तो दिया,
याद आएंगे हम, तुम जिधर जाओगे,

मैं हूँ काँटा कसक छोड़ कर जाऊंगा,
तुम हो गुल देखना कल बिखर जाओगे...


चरणजीत ‘चरन’

यों आए वो रात ढले...

यों आए वो रात ढले,
जैसे जल में ज्योत जले,

मन में नहीं ये आस तेरी,
चिंगारी है राख तले,

हर रुत में जो हँसते हों,
फूलों से वो ज़ख्म भले,

वक़्त का कोई दोष नहीं,
हम ही न अपने साथ चले,

आँख जिन्हें टपका न सकी,
शे’रों में वे अश्क़ ढले...


नरेश कुमार ‘शाद’