शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

हन्गामा है क्यूँ बरपा...

हन्गामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है

ना-तजुर्बाकारी से वाइज़ की ये बातें हैं
इस रन्ग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है

उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना
मक़सूद है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है


हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है

सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहे काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है


अकबर इलाहाबादी

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