शब्दों की अविरल धारा...
वो आए घर हमारे खुदा कि कुदरत है॥ कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं...
शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010
यों आए वो रात ढले...
यों आए वो रात ढले,
जैसे जल में ज्योत जले,
मन में नहीं ये आस तेरी,
चिंगारी है राख तले,
हर रुत में जो हँसते हों,
फूलों से वो ज़ख्म भले,
वक़्त का कोई दोष नहीं,
हम ही न अपने साथ चले,
आँख जिन्हें टपका न सकी,
शे’रों में वे अश्क़ ढले...
नरेश कुमार ‘शाद’
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