अब नये साल की मोहलत नहीं मिलने वाली
आ चुके अब तो शब-ओ-रोज़ अज़ाबों वाले
अब तो सब दश्ना-ओ-ख़ंज़र की ज़ुबाँ बोलते हैं
अब कहाँ लोग मुहब्बत के निसाबों वाले
ज़िन्दा रहने की तमन्ना हो तो हो जाते हैं
फ़ाख़्ताओं के भी किरदार उक़ाबों वाले
न मेरे ज़ख़्म खिले हैं न तेरा रंग-ए-हिना
मौसम आये ही नहीं अब के गुलाबों वाले
अहमद फ़राज़
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें