कहीं उम्मीद सी है दिल के निहाँख़ाने में,
अभी कुछ वक़्त लगेगा इसे समझाने में,
मौसम-ए-गुल हो कि पतझड़ हो बला से अपनी,
हम कि शामिल हैं न खिलने में न मुर्झाने में,
है यूँ ही घुमते रहने का मज़ा ही कुछ और,
ऐसी लज़्ज़त न पहुँचने में न रह जाने में,
नये दीवानों को देखें तो ख़ुशी होती है,
हम भी ऐसे ही थे जब आये थे वीराने में,
मौसमों का कोई मेहरम हो तो उस से पूछो,
कितने पतझड़ अभी बाक़ी हैं बहार आने में...
अहमद मुस्ताक
2 टिप्पणियां:
सुन्दर । प्रयास जारी रखे।
बहुत शुक्रिया
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