बुधवार, 5 जनवरी 2011

वो मुक़द्दर न रहा और वो ज़माना न रहा...

वो मुक़द्दर न रहा और वो ज़माना न रहा,
तुम जो बेगाने हुए, कोई यगाना न रहा,
ओ ज़मीं तू ही लब-ए-ग़ौर से इतना कह दे,
आ मेरी गोद में गर, कोई ठिकाना न रहा...

जिसकी उम्मीद में जीते थे, ख़फ़ा है वो भी,
ऐ अज़ल! आ कि कोई अब तो बहाना न रहा,
रहम कर, रहम कर, कि ये इश्क़ सितम है मुझ पर,
तीर फिर किस पै चलेंगे जो निशाना न रहा...

आगा हश्र कश्मीरी

कोई टिप्पणी नहीं: